बापू...
हे बापू !
जम रही है धूल
तुम्हारे चश्में पर
छोड गए थे
तुम इसे
इस धरा पर
हमने रखा था
थाती समझकर
प्रेरित करता था हमें
सच की राह चलने को
अहिंसा का धर्म जीने को
पढ़ा है
अख़बारों में
चश्मे की धूल साफ हुई है
ये फिर से नीलाम हुई है
और हम हैं
कि चुप हैं
आँखों पर हाथ रखे
कानों में उंगली डाले
बंदरों की तरह ...
और होती रहती है
नीलामी रोज -रोज
आदर्शों की, संस्कारों की
सफेदपोश समाज के ठेकेदारों द्वारा ..
छपती हैं
तस्वीरें - तहरीरें
लोग पढते हैं
चर्चा करते हैं
मनोरंजन की खुराक समझकर.
Copyright@संतोष कुमार 'सिद्धार्थ' , २०१२
हे बापू !
जम रही है धूल
तुम्हारे चश्में पर
छोड गए थे
तुम इसे
इस धरा पर
हमने रखा था
थाती समझकर
प्रेरित करता था हमें
सच की राह चलने को
अहिंसा का धर्म जीने को
पढ़ा है
अख़बारों में
चश्मे की धूल साफ हुई है
ये फिर से नीलाम हुई है
और हम हैं
कि चुप हैं
आँखों पर हाथ रखे
कानों में उंगली डाले
बंदरों की तरह ...
और होती रहती है
नीलामी रोज -रोज
आदर्शों की, संस्कारों की
सफेदपोश समाज के ठेकेदारों द्वारा ..
छपती हैं
तस्वीरें - तहरीरें
लोग पढते हैं
चर्चा करते हैं
मनोरंजन की खुराक समझकर.
Copyright@संतोष कुमार 'सिद्धार्थ' , २०१२
अब मैं हूँ ही कहाँ !!!
ReplyDeleteसच है, अब इसका पता मुश्किल है.
Deleteसच कहा....
ReplyDeleteबेहतरीन अभिव्यक्ति...
नमन बापू को.
अनु
ReplyDeleteकल आज और कल ....तक की कविता
बापू का चश्मा....मन को चुटी, झकझोरती रचना.
ReplyDeleteहरगोविंद