Saturday, October 27, 2012

आजकल

कुछ घुल गया है पानी में,
है  दूषित कर गया 
कोई चमन की  हवा को 
न जाने क्या..शायद कोई 
नया रोग सा लगा है 
इस ज़माने को 

नोचने में कमीजें 
एक - दूसरे की

खुश हो रहे हैं 
लोग कई


बचने की कोशिश में 
जो छुपे किसी  के पहलू में
हैं उनकी चादरें
पहले से कालिख में सनी हुईं

जिधर देखो
रंगे सियारों की
फ़ौज सी खड़ी है

किसके साथ खड़ा होऊं?
आज नहीं तो कल ..
रंग तो सबकी उतरी है

काट कर
बांटने में
व्यस्त हैं जोडने वाले
जो हैं समर्थ
ओढ़ कर मुफलिसी
जड़ रखे हैं 
खुद  के मुंह पर ताले

ऐ खुदा , हे भगवान !
मत हँस..इन गरीबों पर
रहम कर 
भेज कोई रसूल अपना
बहुत हो चुका...
अब सब्र नहीं होता ,
खुद से अपनो का इलाज नहीं होता !!
 
Copyright@संतोष कुमार 'सिद्धार्थ', २०१२

Tuesday, October 9, 2012

ख्वाहिशें...


ख्वाहिशें...
मेरी भी हैं
तुम्हारी भी
पर हम हैं
कि जी रहे 
जिंदगी रोज-रोज
वैसी ही 
जो बस 
इतना सामर्थ्य रखती हों
जो चुक जाए 
करने में पूरी फरमाइशें ..
दुनिया की,
दुनियादारी की .

Copyright@संतोष कुमार 'सिद्धार्थ', २०१२ 

Monday, October 1, 2012

बापू का चश्मा

बापू...
हे बापू !
जम रही है धूल
तुम्हारे चश्में पर

छोड गए थे
तुम इसे 
इस धरा पर
हमने रखा था
थाती समझकर
प्रेरित करता था हमें
सच की राह चलने को
अहिंसा का धर्म जीने को

पढ़ा है
अख़बारों में
चश्मे की धूल साफ हुई है
ये फिर से नीलाम हुई है
और हम हैं 
कि चुप हैं
आँखों पर हाथ रखे
कानों में उंगली डाले 
बंदरों की तरह ...
और होती रहती है
नीलामी रोज -रोज
आदर्शों की, संस्कारों की
सफेदपोश समाज के ठेकेदारों द्वारा ..
छपती हैं
तस्वीरें - तहरीरें 
लोग पढते हैं 
चर्चा करते हैं
मनोरंजन की खुराक समझकर.

Copyright@संतोष कुमार 'सिद्धार्थ' , २०१२