आज फिर
शाम ने
रात के साथ मिलकर
कसम खाई है..
सुबह .. होने ना देगी
मुझे जाने ना देगी.
कहती है..
रोज-रोज
मैं थोडा -सा बदल जाता हूँ..
सिर्फ मेरी शक्ल ही नहीं
मेरे जीने का अंदाज़ भी
जब भी ..
अगली शाम को
सिर उठाता हूँ
झील के पार से
बिखेरने.. चांदनी की किरणें
तुम्हारे अप्रतिम सौंदर्य पर..
Copyright@संतोष कुमार 'सिद्धार्थ', २०१२
शाम ने
रात के साथ मिलकर
कसम खाई है..
सुबह .. होने ना देगी
मुझे जाने ना देगी.
कहती है..
रोज-रोज
मैं थोडा -सा बदल जाता हूँ..
सिर्फ मेरी शक्ल ही नहीं
मेरे जीने का अंदाज़ भी
जब भी ..
अगली शाम को
सिर उठाता हूँ
झील के पार से
बिखेरने.. चांदनी की किरणें
तुम्हारे अप्रतिम सौंदर्य पर..
Copyright@संतोष कुमार 'सिद्धार्थ', २०१२
अब बेचारा चाँद क्या करे???
ReplyDeleteआरोप मिथ्या तो नहीं हैं ना!!!!
आरोप मिथ्या तो नहीं... पर इसमें चाँद की मजबूरी भी तो है, हम सब का बदल जाना माहौल. परिवेश और परिस्थितियों पर निर्भर करता है और फिर बदल कर भी अपनी अनोखी पहचान बचाए रखने की कोशिश तो तारीफ़ की बात है.
Deleteवाह बेहद सुन्दर..! कलात्मक ..
ReplyDeleteधन्यवाद !
Deletechaand ke saath kai dard puraane nikle....jo bhee gham thay mere gham ke bahaane nikle...!!
ReplyDeleteसुरेन्द्र जी : सच कहा आपने. चाँद से हमदर्दी तो रहेगी ही, क्योंकि साथ दिया है .. उसने जाने कितनी उदास रातों में.. कई बरसों से.
Deleteधन्यवाद.
वाह ....प्रेम से परिपूर्ण
ReplyDeleteशुक्रिया !
Deleteवाह बहुत सुंदर
ReplyDeleteवाह ...बहुत ही बढि़या ..
ReplyDeletevery nice.
ReplyDelete