Monday, June 25, 2012

चलते - चलते

१.
झांक लेना
कभी दायें,
कभी बाएं
कभी पलटकर
पीछे भी...
मैं मिल सकता हूँ
फिर तुमसे 
कभी भी..
कहीं भी..
जीवन के लंबे सफर में.


२.
वर्तमान से बिछड्ते हुए
भूत ने कहा..
मुझे भूलना मत,
ना ही मेरे साथ बिताए दिन,
संग जिए, सीखे हुए 
जिन्दगी के हजार सबक..
अगर जो ..
बेहतर बनाना है
आने वाला कल ,
वैसे भी तो लौट कर,
सफर खत्म कर  
कल तुम्हे भी
मेरे ही पास आना है.


३.
बहती हुई नदिया 
कहे पर्वत से..
तुम ऊँचे हो,
छूने को तत्पर हो
गगन की सीमाओं को
पर मैंने भी तो
सींचा  है, मापा है
कितने ही भागों में
पृथ्वी की परिमिति को..
फिर भी है तुम्हे 
कैसा अभिमान !
अपने - अपने पैमाने में हैं
हम भी श्रेष्ठ !
तुम भी श्रेष्ठ!

Copyright@संतोष कुमार 'सिद्धार्थ', २०१२.




Tuesday, June 12, 2012

परदेशी

जब से है लौटा
परदेशी घर ..अपने
ढूंढ रहा है ..
अपनेपन का अहसास
घर की दीवारों में,
नए - पुराने चेहरों में,
घूरती निगाहों में  
वही पुराना भरोसा
वही विश्वास..


बदली- बदली सी है  
हवा भी, फ़िजा भी
हवा में खुशबू तो है ,
पहले सी सनसनाहट भी ,
लेकिन गर्मजोशी नहीं 
सिर्फ टंगी तस्वीरे नहीं
बदले हुए हैं  देवी -देवता भी,
और तरीके भी
उनकी नुमाइंदगी के...


परदेशी
पशोपेश में है
घर तो उसी का था
पर जाने कैसे?
वक्त के अंतराल में ..
घर का मौसम बदल चुका था !


परदेशी 
सोंच में है,
पलटने को है
वापस परदेश ...
कहीं बना न ले
परदेश को ही
देश अपना , घर अपना !

Copyright@संतोष कुमार 'सिद्धार्थ', २०१२

Saturday, June 9, 2012

मैं , मेरा मन और मेरी झुलनेवाली कुर्सी

मैं,
मेरा मन
और मेरी झुलनेवाली  कुर्सी..


मेरी कुर्सी 
अब भी 
झुलती रहती है
कभी - कभी 
तेज हवा के झोंकों से
पर उसपर 
मैं नहीं बैठता 
बैठने  पर भी
सुकून नहीं मिलता..
तुम जो नहीं होतीं
मेरे पीछे , 
अपने लंबे बालों का चंवर हिलाते हुए.


मेरा मन
यहाँ ..कहाँ रहता है
मेरे पास?

गया है बाहर कहीं 
मुझसे बिन बताये ही 

होगा वहीँ
हाँ.. हाँ 
वहीँ कहीं..
जहाँ  तुम होगी ,
खोया होगा 
तुम्हारे ख्यालों में
या भंवरा बन 
मंडरा रहा होगा
तुम्हारे जुड़े में गुंथे फूलों पर.


और बचा मैं..
सोंचता हूँ,
कहाँ जाऊं,
घर में तो,
यादों ने डेरा डाल रखा है
इनसे मुंह छिपाऊँ
तो कहाँ जाऊं
बाहर भी तो
कहीं भी,
किसी चहरे में
ढूँढने पर भी
तुम्हारा अक्स नहीं दिखता  ?

मैं , 
मेरा मन 
और मेरी झुलनेवाली कुर्सी
सभी याद करते हैं
तुम्हे ,
सताए हैं तुम्हारे ही
और सुलझा रहें हैं
अपने - अपने हिस्से की पहेली,
तभी से दिन-रात,
जब से तुम
कल आने का,
जरुर आने का
कच्चा वादा करके गयी हो.


Copyright@संतोष कुमार 'सिद्धार्थ', २०१२