Sunday, November 27, 2011

आधे – अधूरे से हम

कोई शाम से
सुबह की रौशनी 
मांग कर देखे
दिन से.. 
रात की शीतलता
मांगे चाँदनी से 
तपती दुपहरी
और पुरवाई से
पछिया की महक
नहीं मिलती..
ना मिलेगी
सभी हैं
कुछ मायनों में
आधे – अधूरे
हैं दो पहलू
एक ही सिक्के के
कितने करीब ..
पर कितने दूर

मैं सोंच में था
पर कोई तो
आगे बढता,
समझाता ..
सांत्वना देता मुझे
मैं मांग रहा था
खुदा से..
इंसानियत की भीख
और जाने क्यूँ
उम्मीद में था
इंसानों से ..खुदाई की

मुद्दतों से..
टीस है मन में
खुदा..सीने से बाहर आकर
अपना चेहरा क्यूँ नहीं दिखाता??? 
क्यूँ लगाता नहीं गले????? 
हर दूसरे बंदे को..
जबकि है छिपा–बसा
नूर-ऐ-खुदा सभी के अंदर !!
Copyright@संतोष कुमार ‘सिद्धार्थ’, २०११ 

Monday, November 7, 2011

प्रेम की सीमा

आखिर मान ली मैंने
तुम्हारी बात..
करने को सीमित
अपना प्यार
आज तक ,    अभी-तक
इस जनम भर के लिए.

चलो !
छोड़ आयें
आज गंगा में
मेरे – तुम्हारे खत,
ग्रीटींग-कार्ड,
इत्र की शीशियाँ ,
कुछ सूखे फूल
नाम लिखे गिलाफ
और रूमाल भी

आओ !
अर्पित कर दें
इन्ही लहरों में
दुनिया के डर से 
जीए हुए आधे – अधूरे ..
हसीन लम्हे भी.

पर मैं कैसे रोक पाऊंगा ?
और कौन रोक सकता है ??
निश्छल , निर्बाध और निडर..
असीम और पवित्र प्रेम के असर को ...
तुम्हें भी पता हैं
अब भी लाखों लोग
लगाते हैं रोज डूबकी..
इसी गंगा के पानी में !!

Copyright@ संतोष कुमार सिद्धार्थ”, २०११
(मेरे संकलन – आधा-अधूरा प्यार से)