Friday, December 7, 2012

तुम्हारी पहचान !

तुम...
छिपे फिरते हो
रहस्यों की छाया में
ओढ़े रहते हो
सवालों के नकाब ..

करीब होते हो 
प्रेरणा बनकर
प्रदीप्त करते हो
ज्योति बनकर

दिख भी जाते हो
तो रहते हो 
आड़ में सतरंगों के
पानी में ..प्रतिबिम्बों में

गर कभी
खुद ही अपना
परिचय बताते,
जवाब बनकर 
चेहरा दिखाते 
तो सोंचो ..
कितना अच्छा था !

Copyright@संतोष कुमार 'सिद्धार्थ', २०१२

Tuesday, November 27, 2012

मेरी नज़र

तुझे
मालूम हो
कि ना मालूम हो
रही है
बरसों से
तुझ पर
मेरी नज़र ...
कभी परदे के आगे से
कभी ..पीछे से !

Copyright@संतोष कुमार 'सिद्धार्थ', २०१२.

Saturday, October 27, 2012

आजकल

कुछ घुल गया है पानी में,
है  दूषित कर गया 
कोई चमन की  हवा को 
न जाने क्या..शायद कोई 
नया रोग सा लगा है 
इस ज़माने को 

नोचने में कमीजें 
एक - दूसरे की

खुश हो रहे हैं 
लोग कई


बचने की कोशिश में 
जो छुपे किसी  के पहलू में
हैं उनकी चादरें
पहले से कालिख में सनी हुईं

जिधर देखो
रंगे सियारों की
फ़ौज सी खड़ी है

किसके साथ खड़ा होऊं?
आज नहीं तो कल ..
रंग तो सबकी उतरी है

काट कर
बांटने में
व्यस्त हैं जोडने वाले
जो हैं समर्थ
ओढ़ कर मुफलिसी
जड़ रखे हैं 
खुद  के मुंह पर ताले

ऐ खुदा , हे भगवान !
मत हँस..इन गरीबों पर
रहम कर 
भेज कोई रसूल अपना
बहुत हो चुका...
अब सब्र नहीं होता ,
खुद से अपनो का इलाज नहीं होता !!
 
Copyright@संतोष कुमार 'सिद्धार्थ', २०१२

Tuesday, October 9, 2012

ख्वाहिशें...


ख्वाहिशें...
मेरी भी हैं
तुम्हारी भी
पर हम हैं
कि जी रहे 
जिंदगी रोज-रोज
वैसी ही 
जो बस 
इतना सामर्थ्य रखती हों
जो चुक जाए 
करने में पूरी फरमाइशें ..
दुनिया की,
दुनियादारी की .

Copyright@संतोष कुमार 'सिद्धार्थ', २०१२ 

Monday, October 1, 2012

बापू का चश्मा

बापू...
हे बापू !
जम रही है धूल
तुम्हारे चश्में पर

छोड गए थे
तुम इसे 
इस धरा पर
हमने रखा था
थाती समझकर
प्रेरित करता था हमें
सच की राह चलने को
अहिंसा का धर्म जीने को

पढ़ा है
अख़बारों में
चश्मे की धूल साफ हुई है
ये फिर से नीलाम हुई है
और हम हैं 
कि चुप हैं
आँखों पर हाथ रखे
कानों में उंगली डाले 
बंदरों की तरह ...
और होती रहती है
नीलामी रोज -रोज
आदर्शों की, संस्कारों की
सफेदपोश समाज के ठेकेदारों द्वारा ..
छपती हैं
तस्वीरें - तहरीरें 
लोग पढते हैं 
चर्चा करते हैं
मनोरंजन की खुराक समझकर.

Copyright@संतोष कुमार 'सिद्धार्थ' , २०१२ 

Friday, September 21, 2012

आजकल

आज कल
हम में से
बहुतेरे लोग 
हांफ रहे
काँप रहे
लगातार भाग रहे

दरिया में
पर्वत पर
दोजख में भी
हैं बार-बार झांक रहे

काट रहे
अपनों को
मुल्क भी
बाँट रहे

क्या सो गया 
जमीर उनका
तभी तो , देखें वे रोज
सपने भी
कालिख सने

क्यों बस उन्हें
चाहिए इस जहाँ में
ऐसा ..वैसा.. कैसा भी..
सिर्फ पैसा , पैसा और बस पैसा ही !

Copyright@संतोष कुमार  'सिद्धार्थ'

Monday, September 17, 2012

मैं और तुम

१.
तुम्हे पता है..?
मेरे बारे में
लोग कहते हैं
कि मैं,  मैं नहीं
कोई और होता हूँ
जब भी मैं
लिख रहा होता हूँ...
कोई गीत,
कोई कविता
तुम्हारे बारे में !

२.
मन मेरा
घूम आया
बन बंजारा
सात समुन्दर पार से
पर तुम मुझे
यही मिलीं
मेरे ही शहर में
पड़ोस की छत पर
भींगे -गीले बाल सुखाते हुए
मैं ही भोला था
समझ न सका 
समय पर .. तेरे इशारों को.

Copyright@संतोष कुमार 'सिद्धार्थ', २०१२.


Thursday, September 6, 2012

पुरुषार्थ

सैंकडो लोग तालियाँ बजा रहे थे
जोर - जोर से
नाम ले रहे थे ..
उस प्रतिभागी का
जो विजयी हुआ था
दौड की प्रतिस्पर्धा में
पर मैंने देखा..
लोगों के हुजूम से हटकर
एक और भी  प्रतिभागी था
अपने चेहरे पर
विजेता सरीखी मुस्कान ओढ़े हुए
आँखों में उसकी
जरा सा भी मलाल न था..
तकदीर से उसका
कोई भी सवाल न था
उसका पुरुषार्थ कहीं भी पीछे न था , 
वो हार कर भी
जीत गया था
प्रतिस्पर्धा को..
उसने पूरा किया था
माँ को दिया हुआ वचन
अपने स्वाभिमान का, 
आत्मविश्वास का प्रण
कि भले ही वो हारे या जीते
वो दौडेगा जरूर...
भले ही सफलता मंजिल
खड़ी रह जाये... उससे थोड़ी दूर.

Copyright@संतोष कुमार 'सिद्धार्थ', २०१२.





Wednesday, August 29, 2012

अनंत के प्रतिबिम्ब !

आओ दिखाएँ 
तुम्हे,
तुम्हारी आँखों में
अनंत का एक रूप
बिल्कुल प्रत्यक्ष में
जरा बैठो तो...
मेरे सामने
और झाँको मेरी आँखों में
और गिनो,
अगर गिन सको तो..?
मेरी आँखों में
तुम्हारी आँखों के
कितने प्रतिबिम्ब हैं?
प्रतिबिम्ब और भी गुणित होंगे...
अगर जो ढलके
एक-दो बूँद आँसू
मेरी या तुम्हारी आँखों में !

Copyright@संतोष कुमार 'सिद्धार्थ', २०१२ 

Tuesday, August 21, 2012

शब्द

शब्द...मीठे शब्द 
रोज सुलाने को आये
बचपन की रातों में
लोरी बनकर

आते हैं  जब - तब 
सपनों में, बंद आँखों में 
बुदबुदाते होठों पर 
अबूझ कहानिया लेकर

अहले सुबह में
रोज जगाते हैं
अजान बनकर,
ईश -प्रार्थना के स्वरों में  
और करते रहे प्रेरित
सुन्दर विचारों से 
अनवरत..जाने कब से

शब्द ...तीखे -मीठे शब्द,
प्रशंसा बन पीठ ठोकते  शब्द,
सभ्यता की विकास -गाथा  कहते शब्द.

Copyright@संतोष कुमार 'सिद्धार्थ', २०१२ 

Thursday, August 9, 2012

क्षणिकाएँ

१.
सुन री हवा
ठहर जरा
बताती तो जा
मेरे प्रीतम का पता
गर जो तुम्हे
ना हो मालूम
तो अपने साथ लेती जा
मेरा पता !

२.
गगन के तारे
रोज बुलाते हैं
कहते हैं
बाँट लो
मेरी रौशनी,
मेरी ऊष्मा
और जी लो
अमन चैन से,
बस नाम न दो
न बांटो मुझे
ऐसा कहके 
कि ये मेरा है
वो तुम्हारा है !

Copyright@संतोष कुमार 'सिद्धार्थ'

Tuesday, July 31, 2012

आत्म-निरीक्षण

आज सुबह..
दर्पण के प्रतिबिम्ब ने
मुझसे ये सवाल पूछा
देखा है..
कभी दर्पण में
ध्यान से
अपना चेहरा ?
कितने बदल गए हो...
तुम क्या थे ...
क्या बनना चाहते थे ..
और क्या बन गए हो ?
है ये तुम्हारी अपनी करतूत
या फिर..
ये वक्त , ये जमाना 
दोनों कामयाब रहे
तुम्हारी सूरत..
तुम्हारी सीरत बदलने में ?

Copyright@संतोष कुमार 'सिद्धार्थ', २०१२ 

Friday, July 20, 2012

अधूरे जज्बात : क्षणिकाएं

१.
कहों...
क्या दिखता है?
तुम्हें मेरी आँखों में
इनमें बसें हैं
तुम्हारे सपनों के स्वेटर पहने 
मेरे हजार सपने
जो जी रहें हैं,
पल रहें हैं 
बड़ी  खूबसूरती से,
आत्मविश्वास से 
जीवन की कड़ी सर्दी में .


२.
जी करे
फिर से मैं
बनूँ सांवरा
रहूँ बावरा
और भागता फिरूं 
तुझ राधिका के पीछे
यहाँ - वहाँ
भूलकर मैं 
अपना आज, अपना काल
अपना नाम ..
और अपनी पहचान भी. 

Copyright@संतोष कुमार 'सिद्धार्थ', २०१२

Friday, July 13, 2012

सफल जीवन की डगर

१.
अवसर
खड़ा है
हर चौराहे पर,
मोड पर,
सुनसान रास्तों में भी
साथ हो लेता है
हर एक
साहसी , जोशीले का
जो उस से नजरें मिलाये ,
और सामना करे खतरों का,
नहीं तो
अवसर भी
फिकरे कसता है,
ताने मारता है
गुजर जाए जो सामने से ,
नज़रे झुकाए, नजरें छिपाए.

२.
सभी
बनाने की कोशिश में हैं
सुन्दर से सुन्दर
तस्वीर जिन्दगी की
पर
सबसे खूबसूरत तस्वीर
उसी की रही,
जिसने परवाह ना की
दिन-रात की..
दुपहरी की..
और चलता रहा
अपने पथ पर
आत्मविश्वास को,
लगन को
अपना हमसफ़र बना
बिना थके ...अनवरत.

Copyright@संतोष कुमार 'सिद्द्धार्थ', 2012

Tuesday, July 3, 2012

तेरी तलाश में...

१.
यूँ तो अक्सर
मेरा नाम सुनकर
तुम्हारा दिल धडकता है
पर क्या
कोई मुल्क है?
कोई जुबान है?
जिसमें होता हो 
तर्जुमाँ मेरे नाम का 
तुम्हारा नाम !


२.
कहते हैं
ढूँढो जो अगर
लगन से,
धीरज से
तो ईश्वर भी मिल जातें है
यही सोंचकर
तुम्हे ढूँढने चला हूँ मैं !

Copyright@संतोष कुमार 'सिद्धार्थ', २०१२

Monday, June 25, 2012

चलते - चलते

१.
झांक लेना
कभी दायें,
कभी बाएं
कभी पलटकर
पीछे भी...
मैं मिल सकता हूँ
फिर तुमसे 
कभी भी..
कहीं भी..
जीवन के लंबे सफर में.


२.
वर्तमान से बिछड्ते हुए
भूत ने कहा..
मुझे भूलना मत,
ना ही मेरे साथ बिताए दिन,
संग जिए, सीखे हुए 
जिन्दगी के हजार सबक..
अगर जो ..
बेहतर बनाना है
आने वाला कल ,
वैसे भी तो लौट कर,
सफर खत्म कर  
कल तुम्हे भी
मेरे ही पास आना है.


३.
बहती हुई नदिया 
कहे पर्वत से..
तुम ऊँचे हो,
छूने को तत्पर हो
गगन की सीमाओं को
पर मैंने भी तो
सींचा  है, मापा है
कितने ही भागों में
पृथ्वी की परिमिति को..
फिर भी है तुम्हे 
कैसा अभिमान !
अपने - अपने पैमाने में हैं
हम भी श्रेष्ठ !
तुम भी श्रेष्ठ!

Copyright@संतोष कुमार 'सिद्धार्थ', २०१२.




Tuesday, June 12, 2012

परदेशी

जब से है लौटा
परदेशी घर ..अपने
ढूंढ रहा है ..
अपनेपन का अहसास
घर की दीवारों में,
नए - पुराने चेहरों में,
घूरती निगाहों में  
वही पुराना भरोसा
वही विश्वास..


बदली- बदली सी है  
हवा भी, फ़िजा भी
हवा में खुशबू तो है ,
पहले सी सनसनाहट भी ,
लेकिन गर्मजोशी नहीं 
सिर्फ टंगी तस्वीरे नहीं
बदले हुए हैं  देवी -देवता भी,
और तरीके भी
उनकी नुमाइंदगी के...


परदेशी
पशोपेश में है
घर तो उसी का था
पर जाने कैसे?
वक्त के अंतराल में ..
घर का मौसम बदल चुका था !


परदेशी 
सोंच में है,
पलटने को है
वापस परदेश ...
कहीं बना न ले
परदेश को ही
देश अपना , घर अपना !

Copyright@संतोष कुमार 'सिद्धार्थ', २०१२

Saturday, June 9, 2012

मैं , मेरा मन और मेरी झुलनेवाली कुर्सी

मैं,
मेरा मन
और मेरी झुलनेवाली  कुर्सी..


मेरी कुर्सी 
अब भी 
झुलती रहती है
कभी - कभी 
तेज हवा के झोंकों से
पर उसपर 
मैं नहीं बैठता 
बैठने  पर भी
सुकून नहीं मिलता..
तुम जो नहीं होतीं
मेरे पीछे , 
अपने लंबे बालों का चंवर हिलाते हुए.


मेरा मन
यहाँ ..कहाँ रहता है
मेरे पास?

गया है बाहर कहीं 
मुझसे बिन बताये ही 

होगा वहीँ
हाँ.. हाँ 
वहीँ कहीं..
जहाँ  तुम होगी ,
खोया होगा 
तुम्हारे ख्यालों में
या भंवरा बन 
मंडरा रहा होगा
तुम्हारे जुड़े में गुंथे फूलों पर.


और बचा मैं..
सोंचता हूँ,
कहाँ जाऊं,
घर में तो,
यादों ने डेरा डाल रखा है
इनसे मुंह छिपाऊँ
तो कहाँ जाऊं
बाहर भी तो
कहीं भी,
किसी चहरे में
ढूँढने पर भी
तुम्हारा अक्स नहीं दिखता  ?

मैं , 
मेरा मन 
और मेरी झुलनेवाली कुर्सी
सभी याद करते हैं
तुम्हे ,
सताए हैं तुम्हारे ही
और सुलझा रहें हैं
अपने - अपने हिस्से की पहेली,
तभी से दिन-रात,
जब से तुम
कल आने का,
जरुर आने का
कच्चा वादा करके गयी हो.


Copyright@संतोष कुमार 'सिद्धार्थ', २०१२ 

Tuesday, May 29, 2012

अनुरोध !

क्यों न ?
तुम ..
बाँध लो
मेरा मन
अपने जूडे की
एक शोख लट से.


अक्सर 
बड़ा ही अनमोल,
अकल्पनीय सुकून
पाया है...
मेरे चंचल मन ने
तुम्हारे गेसुओं की खुशबू में
तुम्हारे पलकों की छांव में!


रहा है
आवारगी में
बरसों से ...
ठहर जाऊं, 
बस जाऊँ यहीं
जो तुम्हारी इजाज़त हो!

Copyright@संतोष कुमार 'सिद्धार्थ', २०१२

Tuesday, May 22, 2012

चाँद की उलझन !

आज फिर
शाम ने
रात के साथ मिलकर
कसम खाई है..
सुबह .. होने ना देगी
मुझे जाने ना देगी.


कहती है..
रोज-रोज
मैं थोडा -सा बदल जाता हूँ..
सिर्फ मेरी शक्ल ही नहीं
मेरे जीने का अंदाज़ भी
जब भी ..
अगली शाम को
सिर उठाता हूँ
झील के पार से
बिखेरने.. चांदनी की किरणें 
तुम्हारे अप्रतिम सौंदर्य पर..

Copyright@संतोष कुमार 'सिद्धार्थ', २०१२

Thursday, May 10, 2012

आगे बढ़ो !

अभी भी पन्ने खाली हैं
आने वाले कल के
इतिहास में,
कई युग बाकी हैं,
जग जीतने को
अलसाई आँखें धो लो
कस लो कमर,
बढ़ लो सही डगर पर
है मुकाम पुकार रहा
बाहें फैलाये ,
विजय का टीका लगाने को
भर लो फेफड़ों में 
साँसे आत्मविश्वास की
मुडना मत,
झुकना मत
आगे बढ़ो !
और जीत लो
इस दुनिया को.

Copyright@संतोष कुमार 'सिद्धार्थ' , २०१२ 

Friday, May 4, 2012

दर्द के प्रतिबिम्ब : कुछ हाइकू

१.
रोता है दिल
घर का भी 
जब  भी लड़े भाई एक-दूसरे से .


२.
फटती है जमीन की छाती भी
सिर्फ सूखा पड़ने से नहीं ,
खेतों के टुकड़े-टुकड़े होने पर भी.


३.
आसमान रोता है
छुपकर अँधेरी सर्द रातों में,
बिखरी हैं ओस की बूंदें गवाही में.


आखिर में प्रस्तुत है .. एक हल्की-फुल्की फुसफुसाती,गुदगुदाती हुई सी क्षणिका ..


सुनो !
धीमे से ,
और जरा प्यार से
अपनी आँखे खोलना...
कल रात से
कैद हूँ
तुम्हारे सपनों में !

Copyright@संतोष कुमार 'सिद्धार्थ', २०१२.

Wednesday, April 25, 2012

प्रार्थना

हे प्रभु!
तू
गड़ेरिया बनकर
धरती पर आ
ले चल अपने साथ 
मैं थक गया...
अपनी करते-करते 
आदमी बन, 

चल हाँक ले चल
मुझ मेमने को
तू ही जाने
कौन हूँ,
कहाँ से आया हूँ,
और 
कहाँ मुझे जाना है ??


Copyright@संतोष कुमार 'सिद्धार्थ', २०१२.

Friday, April 20, 2012

जिन्दगी

जिन्दगी..
दो मुहें सांप जैसी
बीता कल खींचे पीछे,
खींचे आगे
आनेवाला कल
रहे पशोपेश में वर्तमान
किसकी सुने,
किधर जाए


जीना तो चाहे  वो
भविष्य की डगर पर
संजोये सपनों को
पर उलझा रहे ,
साफ़ करता रहे
खुशियों पर
पड़ी धूल भूत की ...


संशय में है
आज का लम्हा
आज की खुशी
समय की घडी में
रेत सी फिसल ना जाए.

Copyright@संतोष कुमार "सिद्धार्थ", २०१२ 

Friday, April 13, 2012

मिलना ..मेरा - तुम्हारा

जब कभी भी
मेरा  चेहरा
और 
तेरा चेहरा
करीब आते हैं
एक - दूसरे के
और खो देते हैं
कुछ यूँ घूम-मिल कर
अपनी-अपनी पहचान
इस जहाँ में
कहीं न कहीं 
सुबह होती है
शाम होती है
फुहारे पड़ती हैं
खुशबू उडती है
ये धरती
सूरज, चाँद सितारे सभी
सलाम कर रहे होते हैं
अपनी-अपनी अदा से
मुझे और तुझे
और जज्ब कर रहे होते हैं
हमारे अनमोल और अद्भुत 
मिलन के जादू को !


Copyright@संतोष कुमार 'सिद्धार्थ' , २०१२ 


Saturday, March 31, 2012

मैं और तुम

१.
मैं 
टूटता तारा सही
जलूँगा, बुझूंगा
पर याद रखना
तेरी हर मुराद
पूरी करूँगा.


२.
मेरी जिंदगी...
तू सलाम कर
मेरे शौक को..
थोड़ा गुमान  कर
मेरे अंदाज का
फिर देख
मैं, तेरे हर पहलू में
कितने रंग भरता हूँ.


३.
मुझे
दुनिया की भीड़ में
सिर्फ तुम ही दिखीं..
अपनी सी
मेरी आँखें
पहचानती थीं ,
पहले से,
कई जन्मों से
सिर्फ तुम्हें हीं.


Copyright@संतोष कुमार 'सिद्धार्थ' , २०१२.



Tuesday, March 27, 2012

मैं कौन हूँ तेरा ..?


जुगनू बनकर
तेरे पीछे-पीछे भागूंगा,
मधुर गीत बन
तुम्हारे कानों से,
तुम्हारे दिल की
धडकनों में उतरूंगा

और जब तुम ...
बंद कर लोगी
पलकें अपनी
मेरे सपनों की अनुभूतियों में,
फिर मैं,
अपने मन के कैनवास पर
तेरा अमिट चित्र उतारूंगा
और बस जाऊँगा ,
तुझसे.. तेरे शहर से कहीं दूर
वहीँ बरसों तक
तेरी बाट निहारूंगा

तू सोंच,
मालूम कर मेरा पता ,
परख कर देख
मन की अनुभूतियों को,
“मैं कौन हूँ तेरा ? “
और क्यों ..
इस जहाँ में आया हूँ !!

Copyright@संतोष कुमार “सिद्धार्थ”, २०१२

Saturday, March 17, 2012

प्रवासी पक्षी !


१.
कोई आवाज दे,
कोई तो याद दिलाये
प्रवासी पक्षियों को
कि मौसम है बीत चला
यहाँ और रहने का,
सूरज ने है फिर से
अपना करवट बदला.
२.
घर पर इंतज़ार कर रहे
नवजात चूजे भी
अपना पंख फडफडाने को
और बुजुर्ग पक्षी भी
आँखे बिछाए, ,  राह तक रहे
जीवन अनुभव बांटने को.
३.
कोई संदेशा दे,
याद दिलाये उन्हें
खुशबू अपनी माटी की,
धूप अपने आँगन की .

Copyright@संतोष कुमार ‘सिद्धार्थ’, २०१२

Sunday, March 11, 2012

दुआ !


तुम्हे..
नसीब हों
सूरज की रौशनी के
सभी टुकड़े,
वो भी ..
जो मैंने समेटे थे,
सहेज रखे थे,
तुम्हारे आँचल में
और वो भी..
जो हो रहे हैं इकट्ठा
मेरी गठरी में
हर रोज ..
तेरे जाने के बाद .

Copyright@संतोष कुमार ‘सिद्धार्थ’, २०१२

Sunday, February 26, 2012

तिनके का दर्द


एक तिनका
न जाने क्यूँ
बाकी रह गया
घोंसले में
सजने से

जी रहा है..
आजकल डर–डर के
गिन रहा है
सांसे.. इस चिंता में
हवा उड़ा न ले जाए
पानी बहा न दे
धुप जला न दे
मिट्टी दफ़न न कर दे
उसके अस्तित्व को..

सोंचता रहता है..
अब कैसे निहारेगा ?
नजदीक से
प्यारी चिड़िया को ,
कैसे देखेगा ?
चिड़िया के बच्चों को,
चहकते हुए,
पंख फैलाते हुए,
जीने का अंदाज..
सीखते हुए .

Copyright@संतोष कुमार ‘सिद्धार्थ’, २०१२ 

Wednesday, February 22, 2012

मतदान का अधिकार !


जनता..
फिर से
भर रही हुंकार
अबकी बार ..
नेता गण में भी
मचे चीत्कार ..
वो भी हों
हैरान – परेशान,
न सो सकें
चैन से.. ,
न बजा सकें बंशी
कि फिर से सत्ता में
काबिज होगी दुबारा
उन्ही की सरकार
अगर जो
ना रखा हो
सही हिसाब ,
सही ख्याल
जनता के आंसुओं का !

Copyright@संतोष कुमार ‘सिद्धार्थ’, २०१२ 

Saturday, February 11, 2012

एक गुलाब !


एक गुलाब टांक दो
मेरे कोट की बटन होल में,
एक गुलाब खोंस दूं
तेरे बालों के जूडे में.

देखें...
कौन किस पर मर मिटता है?
तू.. मुझपर,
या मैं तुझपर
या फिर
ये गुलाब मर मिटे
हमारी किस्मत पर.

अगर जो कोई
ज़माने में
देखकर हमें जले
तो...भेज दो
उसके भी घर
टोकरी भर गुलाब !!

Copyright@संतोष कुमार ‘सिद्धार्थ’, २०१२ 


आप सबों को 'प्रेम-दिवस' (Valentine Day) की हार्दिक शुभकामनाएं. एक विनम्र निवेदन है कि अगर दुनिया में  खुशी,  मुस्कान और प्यार बिखेरना चाहते हों तो गुलाब भेंट करना ना भूलें.

Thursday, February 2, 2012

सुनयना ..सुनो ना !


अरी ओ सुनयना ..
जरा करीब तो आओ
बैठो ..पास हमारे
और सुनो..तो
ये बसंती हवा
कहाँ बहती जाए,
क्या कहती जाए
क्यूँ हवा में
खुशबू सी लहराए
क्यूँ भौंरा
फूलों को गुदगुदाए
ये मदमाती साँझ
किसका नाम बुलाए
अब और
कैसे इशारे करूं
तुझे समझाने को,
पास बुलाने को,
जो ना समझ आये
मेरे शब्दों से
चाहो तो ..,
उसे भी सुन लो
लगकर गले मुझसे,
मेरे दिल की धडकनों में..
मेरी मनुहार
ना सही ..
इस ऋतु के जादू का
मान तो रख लो ना..
अरी सुनयना ..सुनो ना !

Copyright@संतोष कुमार ‘सिद्धार्थ’, २०१२ 

Sunday, January 22, 2012

जिंदगी


१.
हैं कुछ सवाल
मन में,
रहते हैं
उमड़ते – घुमड़ते
कभी – कभी
छलक आते हैं
आंसू बनकर
आँखों के कोरों पर
और कभी
पसीने की बूंदो में
चमक उठते हैं
मेरी पेशानी पर..
२.
क्षितिज पर
जमीन-आसमां
क्यूँ मिलते नहीं हैं ?
क्यूँ सपनों को
बादलों से पंख होते नहीं हैं?
क्यूँ हर नदी
सागर से जाकर मिलती है?
क्यूँ ये जिंदगी
बड़े-बड़ों से भी
अकेले नहीं संभलती है?
क्यूँ जन्म लेता हूँ,
मरता हूँ बार – बार
तुझसे ही बिछुड कर,
तुझसे ही मिलने को ??

Copyright@संतोष कुमार ‘सिद्धार्थ’, २०१२ 

Sunday, January 8, 2012

अन्ना का संघर्ष !


कैसे जुटेंगे ?
कैसे साथ देंगे ??
लाखों लोग
अन्ना के आंदोलन में
अन्ना के अनशन में
भ्रष्टाचार मिटाने को

अब भी
जुटे रहतें है
करोड़ों जन
दिन – रात , चौबीसों घंटे
बुझाने को
पेट की आग,
जुटाने को
दो जून रोटी
और मुट्ठी भर अन्न !

Copyright@संतोष कुमार ''सिद्धार्थ'', २०१२