Monday, July 11, 2011

मेरी कविता(१)

ईश्वर

मैने देखा है
ईश्वर को,
हाँ.. उसी का एक रूप
सागर तट पर
मचलते हुए
चलते हुए
रेत के घरौदे बनाते हुए
फूल पत्तो से सजाते हुए
और फिर..
अपने पैरों से तोड़ कर
इठलाते हुए, हंसते हुए
या फिर..
उसे क्रूर लहरों को
सौंप कर जाते हुए.

2 comments:

  1. So we should believe that we are toys to amuse God?? May be, After all He is almighty, how can he take care of infinite living things?

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  2. @hanslata,
    अपनी अपनी सोंच है। मुझे लगता है कि हम सब ईश्वर हीं हैं भेद बस मात्रा का है। असीम सागर और फ़िर सागर की एक बूँद - ब्रह्म और जीव का रिश्ता बस ऐसा हीं है, अंतर गुणात्मक नहीं है...मात्रा का है। अब इसके बाद तो यह समझना हीं बाकि बचेगा कि एक बूँद और दूसरे बूँद के बीच तो अंतर मात्रा का भी नहीं है।
    विषय बहुत बड़ा नहीं है...लोग खींच कर बड़ा कर देते है - यह बताने के लिए कि मैं तुमसे ज्यादा विद्वान हूँ, जो एक झूठी बात है।

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