Friday, September 30, 2011

शैतान का साया

शैतान का साया
है चंहुओर छाया
उसकी कोई...
जाति नहीं
धर्मं नहीं
न कोई क्षेत्र विशेष
न कोई रंग
मुझमें ..तुझमें..
भी हैं उसके अंश



जब भी है मन के अंदर
उबता.. अकुलाता   
जरा सा बल पाकर
भाई से लडता
पडोसी से भिड़ता
धमाके करता,
अपहरण करता
आपस की भेद-भाव बढाता


जन-मानस में
कोहराम मचाता
लोगों का क्रंदन सुनकर
खिलखिलाता.. अट्टहास करता
और ..भूल जाता
उसका भी तो घर है
बच्चे हैं
बूढी अम्मा है
जो है ताक रहे..
उसकी राह..
घर लौटने का
अपलक.. अश्रुभरी आँखों से.

Copyright@Santosh Kumar, 2011

आइये, मिल-जुल कर आपस में सद-भाव और प्रेम का संचार करें. और मन में बैठे घृणा, द्वेष, क्रोध, भ्रष्टाचार भेदभाव रूपी शैतान के अंश को दूर भगाएं.



Sunday, September 25, 2011

जिंदगी.. नये जमाने की.

१.
नये जमाने के
नये हैं तौर-तरीके
बदले-बदले से हैं
जिंदगी के सलीके


तंग दरवाज़ों में,
बंद खिड़कियों में
एअर-कंडिसनर की हवा भली
बिना मोबाइल-अलार्म के
कितनों की नींद ही ना खुली..


ज़रूरी हो गयी गोली
चैन से सोने के लिए
उससे भी ज़रूरी
सुबह की चाय के लिए.


२.
घर से दफ़्तर
दफ़्तर से घर
पता ही ना चले
क्या होता बाहर


पड़ोस मे कौन आया
किसने न्योता भिजवाया
कौन टीचर बच्चों को पढ़ाए
किस नंबर की बस उसे स्कूल ले जाए


ट्यूब-लाइट की चकाचौंध में
जिंदगी जगमगाए..
देखना हो सूरज को..
तो हिल-स्टेशन जाएँ.


Copyright@Santosh kumar, 2011
Picture courtesy : Google Images

Sunday, September 18, 2011

शाम

हर रोज़
शाम आती है
मेरी परछाई से
छिप कर
तुम्हारी परछाई से
मिलने..
बाँटने सुख-दुख
मेरे-तुम्हारे
और
अधूरे वादे.. 

करके जाती है
मुझे तन्हा ..
मेरी सहमी हुई
यादों के भरोसे.

copyright@Santosh kumar, 2011
Picture Courtesy : Google Images.

Saturday, September 10, 2011

काश! ऐसा होता!


कितना अच्छा होता..
अगर तू
नन्ही सी बदली होती


और मैं
मस्त हवा का झोंका होता
तब.. तुझे
तुझसे पूछे बिना
कहीं भी
उड़ा ले जाना
कितना आसान होता!!
काश! ऐसा होता!

Copyright@Santosh Kumar, 2011


शब्दार्थ
बदली = बदरी, बादल का छोटा सा टुकड़ा

Post Script : It was one of my very first poems, when I just started writing about my innocent wishes and dreams.



Thursday, September 8, 2011

एक पत्थर


मैं तो हूँ
एक पत्थर,
हर लम्हा
कोई आता है
बैठता है,.. मेरे पास
फिर छूकर,
अपना
नाम लिखकर
चला जाता है
कोई चॉक से,
कोई चाकू से
कुरेदकर
एक निशान
बना कर चला जाता है
मेरे हृदय पर
सदियों के लिए.....

Santosh, 06.04.08
Copyright@Santosh Kumar, 2008

It was very spontenous poem, I was enjoying dinner with my wife and friend at a Restaurant, during the conversation, my friends shared a "Shayari", and then I just wrote a new poem.... you won't believe, it was written on a tissue paper, my wife has still preserved the paper.