कोई शाम से
सुबह की रौशनी
मांग कर देखे
मांग कर देखे
दिन से..
रात की शीतलता
रात की शीतलता
मांगे चाँदनी से
तपती दुपहरी
तपती दुपहरी
और पुरवाई से
पछिया की महक
नहीं मिलती..
ना मिलेगी
सभी हैं
कुछ मायनों में
आधे – अधूरे
हैं दो पहलू
एक ही सिक्के के
कितने करीब ..
पर कितने दूर
मैं सोंच में था
पर कोई तो
आगे बढता,
समझाता ..
सांत्वना देता मुझे
सांत्वना देता मुझे
मैं मांग रहा था
खुदा से..
इंसानियत की भीख
और जाने क्यूँ
उम्मीद में था
इंसानों से ..खुदाई की
मुद्दतों से..
टीस है मन में
टीस है मन में
खुदा..सीने से बाहर आकर
अपना चेहरा क्यूँ नहीं दिखाता???
क्यूँ लगाता नहीं गले?????
हर दूसरे बंदे को..
जबकि है छिपा–बसा
नूर-ऐ-खुदा सभी के अंदर !!
Copyright@संतोष कुमार ‘सिद्धार्थ’, २०११