आखिर मान ली मैंने
तुम्हारी बात..
करने को सीमित
अपना प्यार
आज तक , अभी-तक
इस जनम भर के लिए.
चलो !
छोड़ आयें
आज गंगा में
मेरे – तुम्हारे खत,
ग्रीटींग-कार्ड,
इत्र की शीशियाँ ,
कुछ सूखे फूल
नाम लिखे गिलाफ
और रूमाल भी
आओ !
अर्पित कर दें
इन्ही लहरों में
दुनिया के डर से
जीए हुए आधे – अधूरे ..
हसीन लम्हे भी.
पर मैं कैसे रोक पाऊंगा ?
और कौन रोक सकता है ??
निश्छल , निर्बाध और निडर..
असीम और पवित्र प्रेम के असर को ...
तुम्हें भी पता हैं
अब भी लाखों लोग
लगाते हैं रोज डूबकी..
इसी गंगा के पानी में !!
Copyright@ संतोष कुमार “सिद्धार्थ”, २०११
(मेरे संकलन – आधा-अधूरा प्यार से)
पर मैं कैसे रोक पाऊंगा ??
ReplyDeleteऔर कौन रोक सकता है?? ??
निश्छल ,,,,,,, निर्बाध और निडर
असीम और पवित्र प्रेम के असर को ...
तुम्हें भी पता हैं
अब भी लाखों लोग
डूबकी लगाते हैं रोज ..
इसी गंगा के पानी में !!prem nahin rukta n chhupta hai n vilin hota hai
हमारे मन की आस्था सब पर भारी है...... बहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteprem to nirjhar hai..bahna janta hai rukna nahi...
ReplyDeleteगहरे भाव।
ReplyDelete
ReplyDelete♥
प्रिय बंधुवर संतोष कुमार “सिद्धार्थ” जी
सस्नेहाभिवादन !
ग़ज़्ज़ब लिखते हैं आप भी …
मैं कैसे रोक पाऊंगा ?
और कौन रोक सकता है ??
निश्छल , निर्बाध और निडर..
असीम और पवित्र प्रेम के असर को ...
कोई नहीं रोक पाएगा प्रेम के प्रभाव को :) …
… … और गंगा में ये सब सामान डालने से तो प्रेम नाम की यह तंदुरुस्ती बढ़नी ही बढ़नी है शर्तिया …( बीमारी का विलोम तंदुरुस्तीही तो हुआ न !)
क्योंकि…
अब भी लाखों लोग
लगाते हैं रोज डुबकी..
इसी गंगा के पानी में !!
:)
अच्छे भाव हैं आपकी के …
राजेन्द्र नाथ रहबर जी की लिखी हुई बहुत प्रसिद्ध नज़्म में , जो जगजीत सिंह जी ने गाई भी थी , इस तरह के भावों की ख़ूबसूरत अभिव्यक्ति हुई थी …
बधाई और मंगलकामनाओं सहित…
- राजेन्द्र स्वर्णकार
very nice poem
ReplyDeleteबहुत बढ़िया लिखा है.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर .........अंतिम पंक्तियाँ तो मन को मोह लेने वाली हैं|
ReplyDeleteबहुत गहरे भाव की सुन्दर अभिव्यक्ति..
ReplyDeleteप्रेम की गंगा में स्नान करने का अनुभव है इस कविता को पढ़ना!! सचमुच मनमोहक!!
ReplyDeleteसुन्दर अभिव्यक्ति!
ReplyDeleteसच्चे प्रेम की अनूभूति और इसकी खुशबू ...छिपाए न छिपे , जलाये ना जले..मिटाए न मिटे .
ReplyDeleteसुन्दर !!
अंजलि 'मानसी'
मेरे ब्लॉग पर आपकी दस्तक अच्छी लगी.अब गंगा में क्या क्या बहाएंगे. कुछ चीजें तो हम दुनिया से साथ ही ले कर जायेंगे
ReplyDeleteगहरे भाव, सुन्दर अभिव्यक्ति
मैं कैसे रोक पाऊंगा ?
ReplyDeleteऔर कौन रोक सकता है ??
निश्छल , निर्बाध और निडर..
असीम और पवित्र प्रेम के असर को ...
सुन्दर अभिव्यक्ति..
पर मैं कैसे रोक पाऊंगा ?
ReplyDeleteऔर कौन रोक सकता है ??
निश्छल , निर्बाध और निडर..
असीम और पवित्र प्रेम के असर को ...
तुम्हें भी पता हैं
अब भी लाखों लोग
लगाते हैं रोज डूबकी..
इसी गंगा के पानी में !!
bahut sachha likha hai
prm to bahta hua jharna hai
use kaun rok sakta hai
आप मेरे ब्लॉग पर आये ..उस के लिए धन्य बाद
बहुत सुन्दर.....कविता भी और आपका ब्लॉग भी.बधाई और शुभकामनाएं.
ReplyDeletebhaut hi gahre bhaavo se rachi rachna....
ReplyDeleteआपके पोस्ट पर आना सार्थक सिद्ध हुआ । । मेरे पोस्ट पर आप आमंत्रित हैं । धन्यवाद ।
ReplyDeleteबहुत ही मनोहर और रागात्मक है आपकी रचना .
ReplyDelete@Rashmi Prabha, Dr Monika Sharma, Suman "Meet" & Atul Shrivastava : Thank you all for appreciation. I was very busy with official works, so that I could not respond back on time. THANKS A LOT!!
ReplyDeleteसुन्दर अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteप्रेम की पावनी गंगा में कुछ डूबता नहीं बल्कि प्रेम बड जाता है ... सुन्दर रचना है प्रेम में पगी ...
ReplyDeleteआओ !
ReplyDeleteअर्पित कर दें
इन्ही लहरों में
दुनिया के डर से
जीए हुए आधे – अधूरे ..
हसीन लम्हे भी.
खुदाया ....
मेरी मोहब्बत को
हर लहर में उतार दे ....
मैं अपनी लहरों में भर लेना चाहती हूँ
उसकी सारी मोहब्बत ....
बहुत सुन्दर प्यारी रचना ..निश्छल और पवित्र प्रेम की सदा जय हो ...
ReplyDeleteभ्रमर ५
पर मैं कैसे रोक पाऊंगा ?
और कौन रोक सकता है ??
निश्छल , निर्बाध और निडर..
असीम और पवित्र प्रेम के असर को ...
तुम्हें भी पता हैं
अब भी लाखों लोग
लगाते हैं रोज डूबकी..
इसी गंगा के पानी में !!
@सुरेन्द्र 'मुल्हिद' , Reena Maurya & वर्ज्य नारी स्वर :
ReplyDeleteआप सबों का धन्यवाद !
आओ !
ReplyDeleteअर्पित कर दें
इन्ही लहरों में
दुनिया के डर से
जीए हुए आधे – अधूरे ..
हसीन लम्हे भी.
पर मैं कैसे रोक पाऊंगा ?
और कौन रोक सकता है ??
निश्छल , निर्बाध और निडर..
असीम और पवित्र प्रेम के असर को ...
तुम्हें भी पता हैं
अब भी लाखों लोग
लगाते हैं रोज डूबकी..
इसी गंगा के पानी में !
बहुत सुन्दर रचना... सच है प्यार ख़त्म करने से ख़त्म नहीं होता... वो तो बस बढ़ता ही बढ़ता जाता है...
सादर
मंजु
बहुत सुन्दर रचना ......
ReplyDeletebehad sunder rachna...
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