मैं सोंचता हूँ...
क्यों ना
लिख लूं
और बाँच भी लूं
खुद ही
कुछ चिट्ठियाँ
मेरे - तुम्हारे नाम की !
क्या होगा..
थोडा मन हल्का होगा
थोडा भारी होगा..
याद आएँगी
कुछ बातें
बरसों पुराने शाम की !
ऐसे में ही, कहीं दूर..
कोई बादल
भिगो जायेगा
तुम्हारे झरोखे के परदे
शायद ...तब कहीं ,
तुम्हे भी बोध होगा
और लिखोगी सच में
एक खत मेरे नाम की !
Copyright@संतोष कुमार 'सिद्धार्थ',2015
क्यों ना
लिख लूं
और बाँच भी लूं
खुद ही
कुछ चिट्ठियाँ
मेरे - तुम्हारे नाम की !
क्या होगा..
थोडा मन हल्का होगा
थोडा भारी होगा..
याद आएँगी
कुछ बातें
बरसों पुराने शाम की !
ऐसे में ही, कहीं दूर..
कोई बादल
भिगो जायेगा
तुम्हारे झरोखे के परदे
शायद ...तब कहीं ,
तुम्हे भी बोध होगा
और लिखोगी सच में
एक खत मेरे नाम की !
Copyright@संतोष कुमार 'सिद्धार्थ',2015
आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (31.07.2015) को "समय का महत्व"(चर्चा अंक-2053) पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है।
ReplyDeleteराजेंद्र जी. मेरी रचना चर्चा-मंच में शामिल करने के लिए धन्यवाद !
ReplyDeleteऐसे में ही, कहीं दूर..
ReplyDeleteकोई बादल
भिगो जायेगा
तुम्हारे झरोखे के परदे
शायद ...तब कहीं ,
तुम्हे भी बोध होगा
और लिखोगी सच में
एक खत मेरे नाम की !
बहुत ही सुन्दर जीवन्त भाव है आपकी कविता में।
स्वयं शून्य
dil ko chhu gayi aapki rachna....
ReplyDeleteaisa laga jaise khud ko padh raha hoon....
beautiful
to kuchh bundon k saath ye mn ka mausam b badal jayega
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