तुम्हे..
नसीब हों
सूरज की रौशनी के
सभी टुकड़े,
वो भी ..
जो मैंने समेटे थे,
सहेज रखे थे,
तुम्हारे आँचल में
और वो भी..
जो हो रहे हैं इकट्ठा
मेरी गठरी में
हर रोज ..
तेरे जाने के बाद .
Copyright@संतोष कुमार ‘सिद्धार्थ’, २०१२
प्रियतमा जिंदगी!! , आओ! , फिर से मिलो , जी लें.. कुछ लम्हे , बेतकल्लुफ होकर , कर लें दो-चार बातें , प्यार की - तकरार की , आ जी लूं तुझे , जी भर कर , कब से खड़ा हूँ , राह में.., बांहे फैलाये, और हूँ बेकरार भी , संग तेरे चलने को , कर वादा आज का , आज की शाम का.., कल हम यहाँ हों न हों!
बहुत प्यारी रचना...
ReplyDeleteकोमल भाव...
टंकण त्रुटि ठीक कर लें...तुम्हारी(तुम्हारे) आंचल में
सादर.
@Expressions : मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है. सराहना और सलाह के लिए धन्यवाद!
Deleteसुन्दर रचना...
ReplyDeleteहबीब जी, बहुत - बहुत धन्यवाद!
Deleteअतुल जी ; चर्चा मंच में शामिल करने का शुक्रिया !
ReplyDeleteकहाँ से चले आतें हैं शब्द निशब्द चेले बने आपके भावों के पीछे ?
ReplyDeleteबहुत खूब....
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया रचना है...
पिछले कुछ दिनों से अधिक व्यस्त रहा इसलिए आपके ब्लॉग पर आने में देरी के लिए क्षमा चाहता हूँ.....!!!!!