प्रियतमा जिंदगी!! , आओ! , फिर से मिलो , जी लें.. कुछ लम्हे , बेतकल्लुफ होकर , कर लें दो-चार बातें , प्यार की - तकरार की , आ जी लूं तुझे , जी भर कर , कब से खड़ा हूँ , राह में.., बांहे फैलाये, और हूँ बेकरार भी , संग तेरे चलने को , कर वादा आज का , आज की शाम का.., कल हम यहाँ हों न हों!
Tuesday, May 29, 2012
Tuesday, May 22, 2012
चाँद की उलझन !
आज फिर
शाम ने
रात के साथ मिलकर
कसम खाई है..
सुबह .. होने ना देगी
मुझे जाने ना देगी.
कहती है..
रोज-रोज
मैं थोडा -सा बदल जाता हूँ..
सिर्फ मेरी शक्ल ही नहीं
मेरे जीने का अंदाज़ भी
जब भी ..
अगली शाम को
सिर उठाता हूँ
झील के पार से
बिखेरने.. चांदनी की किरणें
तुम्हारे अप्रतिम सौंदर्य पर..
Copyright@संतोष कुमार 'सिद्धार्थ', २०१२
शाम ने
रात के साथ मिलकर
कसम खाई है..
सुबह .. होने ना देगी
मुझे जाने ना देगी.
कहती है..
रोज-रोज
मैं थोडा -सा बदल जाता हूँ..
सिर्फ मेरी शक्ल ही नहीं
मेरे जीने का अंदाज़ भी
जब भी ..
अगली शाम को
सिर उठाता हूँ
झील के पार से
बिखेरने.. चांदनी की किरणें
तुम्हारे अप्रतिम सौंदर्य पर..
Copyright@संतोष कुमार 'सिद्धार्थ', २०१२
Thursday, May 10, 2012
आगे बढ़ो !
अभी भी पन्ने खाली हैं
आने वाले कल के
इतिहास में,
कई युग बाकी हैं,
जग जीतने को
अलसाई आँखें धो लो
कस लो कमर,
बढ़ लो सही डगर पर
है मुकाम पुकार रहा
बाहें फैलाये ,
विजय का टीका लगाने को
भर लो फेफड़ों में
साँसे आत्मविश्वास की
मुडना मत,
झुकना मत
आगे बढ़ो !
और जीत लो
इस दुनिया को.
Copyright@संतोष कुमार 'सिद्धार्थ' , २०१२
आने वाले कल के
इतिहास में,
कई युग बाकी हैं,
जग जीतने को
अलसाई आँखें धो लो
कस लो कमर,
बढ़ लो सही डगर पर
है मुकाम पुकार रहा
बाहें फैलाये ,
विजय का टीका लगाने को
भर लो फेफड़ों में
साँसे आत्मविश्वास की
मुडना मत,
झुकना मत
आगे बढ़ो !
और जीत लो
इस दुनिया को.
Copyright@संतोष कुमार 'सिद्धार्थ' , २०१२
Friday, May 4, 2012
दर्द के प्रतिबिम्ब : कुछ हाइकू
१.
रोता है दिल
घर का भी
जब भी लड़े भाई एक-दूसरे से .
२.
फटती है जमीन की छाती भी
सिर्फ सूखा पड़ने से नहीं ,
खेतों के टुकड़े-टुकड़े होने पर भी.
३.
आसमान रोता है
छुपकर अँधेरी सर्द रातों में,
बिखरी हैं ओस की बूंदें गवाही में.
आखिर में प्रस्तुत है .. एक हल्की-फुल्की फुसफुसाती,गुदगुदाती हुई सी क्षणिका ..
सुनो !
धीमे से ,
और जरा प्यार से
अपनी आँखे खोलना...
कल रात से
कैद हूँ
तुम्हारे सपनों में !
Copyright@संतोष कुमार 'सिद्धार्थ', २०१२.
रोता है दिल
घर का भी
जब भी लड़े भाई एक-दूसरे से .
२.
फटती है जमीन की छाती भी
सिर्फ सूखा पड़ने से नहीं ,
खेतों के टुकड़े-टुकड़े होने पर भी.
३.
आसमान रोता है
छुपकर अँधेरी सर्द रातों में,
बिखरी हैं ओस की बूंदें गवाही में.
आखिर में प्रस्तुत है .. एक हल्की-फुल्की फुसफुसाती,गुदगुदाती हुई सी क्षणिका ..
सुनो !
धीमे से ,
और जरा प्यार से
अपनी आँखे खोलना...
कल रात से
कैद हूँ
तुम्हारे सपनों में !
Copyright@संतोष कुमार 'सिद्धार्थ', २०१२.
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