Saturday, June 9, 2012

मैं , मेरा मन और मेरी झुलनेवाली कुर्सी

मैं,
मेरा मन
और मेरी झुलनेवाली  कुर्सी..


मेरी कुर्सी 
अब भी 
झुलती रहती है
कभी - कभी 
तेज हवा के झोंकों से
पर उसपर 
मैं नहीं बैठता 
बैठने  पर भी
सुकून नहीं मिलता..
तुम जो नहीं होतीं
मेरे पीछे , 
अपने लंबे बालों का चंवर हिलाते हुए.


मेरा मन
यहाँ ..कहाँ रहता है
मेरे पास?

गया है बाहर कहीं 
मुझसे बिन बताये ही 

होगा वहीँ
हाँ.. हाँ 
वहीँ कहीं..
जहाँ  तुम होगी ,
खोया होगा 
तुम्हारे ख्यालों में
या भंवरा बन 
मंडरा रहा होगा
तुम्हारे जुड़े में गुंथे फूलों पर.


और बचा मैं..
सोंचता हूँ,
कहाँ जाऊं,
घर में तो,
यादों ने डेरा डाल रखा है
इनसे मुंह छिपाऊँ
तो कहाँ जाऊं
बाहर भी तो
कहीं भी,
किसी चहरे में
ढूँढने पर भी
तुम्हारा अक्स नहीं दिखता  ?

मैं , 
मेरा मन 
और मेरी झुलनेवाली कुर्सी
सभी याद करते हैं
तुम्हे ,
सताए हैं तुम्हारे ही
और सुलझा रहें हैं
अपने - अपने हिस्से की पहेली,
तभी से दिन-रात,
जब से तुम
कल आने का,
जरुर आने का
कच्चा वादा करके गयी हो.


Copyright@संतोष कुमार 'सिद्धार्थ', २०१२ 

9 comments:

  1. उत्साहित बढाती रचना बहुत सुन्दर |

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  2. यादों में उलझी सी रचना................

    बहुत सुन्दर.

    अनु

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  3. सुन्दर यादें छांव सी हैं जीवन की तपती धूप में...

    आपका शुक्रिया !

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  4. बेहद सुन्दर भाव लिए सम्पूर्ण रचना ...बहुत खूब



    जिंदगी यूँ ही मिल कर बीत जाएगी ...संग तेरे
    चार कदम साथ तो चलो ...थकने से पहले |........अनु

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  5. बहुत सुंदर ...यादों के भंवर मे उलझी सी ...राह तकती रचना ...

    शुभकामनायें.

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    Replies
    1. अनुपमा जी : सराहना के लिए धन्यवाद !

      राहें भी रह तकती है,
      उन्हें भी इंतज़ार है,
      फिर से मेरे- तुम्हारे मिलने का..
      एक साथ चलने का....

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  6. कच्चे वादों पर भी भरोसा कायम रहता है ताउम्र..

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