Friday, September 21, 2012

आजकल

आज कल
हम में से
बहुतेरे लोग 
हांफ रहे
काँप रहे
लगातार भाग रहे

दरिया में
पर्वत पर
दोजख में भी
हैं बार-बार झांक रहे

काट रहे
अपनों को
मुल्क भी
बाँट रहे

क्या सो गया 
जमीर उनका
तभी तो , देखें वे रोज
सपने भी
कालिख सने

क्यों बस उन्हें
चाहिए इस जहाँ में
ऐसा ..वैसा.. कैसा भी..
सिर्फ पैसा , पैसा और बस पैसा ही !

Copyright@संतोष कुमार  'सिद्धार्थ'

9 comments:

  1. bahut sach baat likhi hai ...katu satya ...
    aise logon ki taadat badhati ja rahi hai ...!!

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    1. Thank you Anupama Ji! We must do something to restrict this practice about "MONEY".

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  2. आज कल का सही दृश्य.........
    मगर आपके क्यों का कोई जवाब नहीं....

    सादर
    अनु

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    1. शुक्रिया अनु जी ! इस 'क्यों' का जवाब हम सब को मिल कर ढूँढना होगा.

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  3. पैसे के रक्त में सब सने हुए हैं . रिश्ता तो बहा जा रहा है भौतिकता के महाजाल में

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  4. सही कहा...पैसे का ही बोलबाला है...नैतिकता जैसी कोई चीज नहीं रह गई है|

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  5. उफ्फ्फ ये पैसा ...

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  6. वास्तविकता दर्शाती कविता

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  7. पैसों के लालच ने मति मारी सबकी.

    सुन्दर अभिव्यक्ति !

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बताएं , कैसा लगा ?? जरुर बांटे कुछ विचार और सुझाव भी ...मेरे अंग्रेजी भाषा ब्लॉग पर भी एक नज़र डालें, मैंने लिखा है कुछ जिंदगी को बेहतर करने के बारे में --> www.santoshspeaks.blogspot.com .