१.
हैं कुछ सवाल
मन में,
रहते हैं
उमड़ते – घुमड़ते
कभी – कभी
छलक आते हैं
आंसू बनकर
आँखों के कोरों पर
और कभी
पसीने की बूंदो में
चमक उठते हैं
मेरी पेशानी पर..
२.
क्षितिज पर
जमीन-आसमां
क्यूँ मिलते नहीं हैं ?
क्यूँ सपनों को
बादलों से पंख होते नहीं हैं?
क्यूँ हर नदी
सागर से जाकर मिलती है?
क्यूँ ये जिंदगी
बड़े-बड़ों से भी
अकेले नहीं संभलती है?
क्यूँ जन्म लेता हूँ,
मरता हूँ बार – बार
तुझसे ही बिछुड कर,
तुझसे ही मिलने को ??
Copyright@संतोष कुमार ‘सिद्धार्थ’, २०१२
बहुत सुन्दर...
ReplyDeleteक्यूँ जन्म लेता हूँ,
मरता हूँ बार – बार
तुझसे ही बिछुड कर,
तुझसे ही मिलने को ??
जीवन चक्र वास्तव में बड़े प्रश्न चिन्ह खड़े करता है...
अच्छी रचना..
जीवन अनबूझ पहेली... सुन्दर भाव
ReplyDeleteबहुत सुंदर ......
ReplyDeleteजिंदगी पहेली ही तो है।
ReplyDeleteउमड़ते–घुमड़ते सवाल ही तो अनबूझ पहेली है। प्रासंगिक भाव..
ReplyDeleteक्षितिज पर
ReplyDeleteजमीन-आसमां
क्यूँ मिलते नहीं हैं ?
क्यूँ सपनों को
बादलों से पंख होते नहीं हैं?.......बहुत खूब
क्षितज पर मिलने का आभास ही ....सपनो का आगाज़ हैं
अच्छी रचना है, प्रासंगिक भाव
ReplyDeleteबहुत सुन्दर है दोनों ही|
ReplyDeletewah. antim panktiyon mein aapne gadar macha diya
ReplyDeleteबहुत ही अच्छी प्रस्तुति ।
ReplyDelete.
ReplyDeleteइस सार्थक पोस्ट के लिए बधाई स्वीकार करें.
कृपया मेरे ब्लॉग पर भी पधारें, अपनी राय दें, आभारी होऊंगा.