Sunday, January 22, 2012

जिंदगी


१.
हैं कुछ सवाल
मन में,
रहते हैं
उमड़ते – घुमड़ते
कभी – कभी
छलक आते हैं
आंसू बनकर
आँखों के कोरों पर
और कभी
पसीने की बूंदो में
चमक उठते हैं
मेरी पेशानी पर..
२.
क्षितिज पर
जमीन-आसमां
क्यूँ मिलते नहीं हैं ?
क्यूँ सपनों को
बादलों से पंख होते नहीं हैं?
क्यूँ हर नदी
सागर से जाकर मिलती है?
क्यूँ ये जिंदगी
बड़े-बड़ों से भी
अकेले नहीं संभलती है?
क्यूँ जन्म लेता हूँ,
मरता हूँ बार – बार
तुझसे ही बिछुड कर,
तुझसे ही मिलने को ??

Copyright@संतोष कुमार ‘सिद्धार्थ’, २०१२ 

11 comments:

  1. बहुत सुन्दर...
    क्यूँ जन्म लेता हूँ,
    मरता हूँ बार – बार
    तुझसे ही बिछुड कर,
    तुझसे ही मिलने को ??
    जीवन चक्र वास्तव में बड़े प्रश्न चिन्ह खड़े करता है...

    अच्छी रचना..

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  2. जीवन अनबूझ पहेली... सुन्दर भाव

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  3. जिंदगी पहेली ही तो है।

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  4. उमड़ते–घुमड़ते सवाल ही तो अनबूझ पहेली है। प्रासंगिक भाव..

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  5. क्षितिज पर
    जमीन-आसमां
    क्यूँ मिलते नहीं हैं ?
    क्यूँ सपनों को
    बादलों से पंख होते नहीं हैं?.......बहुत खूब

    क्षितज पर मिलने का आभास ही ....सपनो का आगाज़ हैं

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  6. अच्छी रचना है, प्रासंगिक भाव

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  7. बहुत सुन्दर है दोनों ही|

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  8. wah. antim panktiyon mein aapne gadar macha diya

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  9. बहुत ही अच्‍छी प्रस्‍तुति ।

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  10. .
    इस सार्थक पोस्ट के लिए बधाई स्वीकार करें.
    कृपया मेरे ब्लॉग पर भी पधारें, अपनी राय दें, आभारी होऊंगा.

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बताएं , कैसा लगा ?? जरुर बांटे कुछ विचार और सुझाव भी ...मेरे अंग्रेजी भाषा ब्लॉग पर भी एक नज़र डालें, मैंने लिखा है कुछ जिंदगी को बेहतर करने के बारे में --> www.santoshspeaks.blogspot.com .